मैं तिरे दर का भिकारी तू मिरे दर का फ़क़ीर
आदमी इस दौर में ख़ुद्दार हो सकता नहीं
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अपनी अना की आज भी तस्कीन हम ने की
मुझ पे पत्थर फेंकने वालों को तेरे शहर में
मिरे घर से ज़ियादा दूर सहरा भी नहीं लेकिन
ग़ुर्बत की तेज़ आग पे अक्सर पकाई भूक
वो मुसलसल चुप है तेरे सामने तन्हाई में
ख़ुदा ने जिस को चाहा उस ने बच्चे की तरह ज़िद की
सरसब्ज़ दिल की कोई भी ख़्वाहिश नहीं हुई
सूरज हूँ चमकने का भी हक़ चाहिए मुझ को
वो चाँद है तो अक्स भी पानी में आएगा
मिले मुझे भी अगर कोई शाम फ़ुर्सत की
लगा दी काग़ज़ी मल्बूस पर मोहर-ए-सबात अपनी