कछवा और ख़रगोश
देखा तो कहीं नज़र न आया हरगिज़
है शुक्र दुरुस्त और शिकायत ज़ेबा
काफ़िर को है बंदगी बुतों की ग़म-ख़्वार
गर जौर-ओ-जफ़ा करे तो इनआ'म समझ
मुलम्मा की अँगूठी
तारीक है रात और दुनिया ज़ख़्ख़ार
जो चाहिए वो तो है अज़ल से मौजूद
क्या कहते हैं इस में मुफ़्तियान-ए-इस्लाम
था रंग-ए-बहार बे-नवाई कि न था
थोड़ा थोड़ा मिल कर बहुत हो जाता है
नसीहत