गर्म-ए-फ़रियाद रखा शक्ल-ए-निहाली ने मुझे
हुज़ूर-ए-शाह में अहल-ए-सुख़न की आज़माइश है
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना-वीरानी को क्या कम है
चाहिए अच्छों को जितना चाहिए
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
कब वो सुनता है कहानी मेरी
हुस्न-ए-बे-परवा ख़रीदार-ए-माता-ए-जल्वा है
दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई
काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना
है वस्ल हिज्र आलम-ए-तमकीन-ओ-ज़ब्त में
क़तरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया लेकिन