दोनों जहाँ दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
जो न नक़्द-ए-दाग़-ए-दिल की करे शोला पासबानी
तू दोस्त किसू का भी सितमगर न हुआ था
मुँद गईं खोलते ही खोलते आँखें 'ग़ालिब'
वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ
मय वो क्यूँ बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में या रब
हुस्न-ए-बे-परवा ख़रीदार-ए-माता-ए-जल्वा है
दर-ख़ूर-ए-क़हर-ओ-ग़ज़ब जब कोई हम सा न हुआ
ज़िंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे
नहीं है ज़ख़्म कोई बख़िये के दर-ख़ुर मिरे तन में
हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
रहमत अगर क़ुबूल करे क्या बईद है