हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
यही है आज़माना तो सताना किस को कहते हैं
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना-काम आऊँ
एक जा हर्फ़-ए-वफ़ा लिखा था सो भी मिट गया
रहे न जान तो क़ातिल को ख़ूँ-बहा दीजे
दहर में नक़्श-ए-वफ़ा वजह-ए-तसल्ली न हुआ
बहुत दिनों में तग़ाफ़ुल ने तेरे पैदा की
जौर से बाज़ आए पर बाज़ आएँ क्या
हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था
तिरे जवाहिर-ए-तरफ़-ए-कुलह को क्या देखें
है तमाशा-गाह-ए-सोज़-ए-ताज़ा हर यक उज़्व-ए-तन