क़त्ल-ए-हुसैन अस्ल में मर्ग-ए-यज़ीद है
इस्लाम ज़िंदा होता है हर कर्बला के बाद
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डर नहीं मुझ को गुनाहों की गिराँ-बारी का
दौर-ए-हयात आएगा क़ातिल क़ज़ा के ब'अद
ख़ाक जीना है अगर मौत से डरना है यही
ख़ूगर-ए-जौर पे थोड़ी सी जफ़ा और सही
क़ैद और क़ैद भी तन्हाई की
बे-ख़ौफ़-ए-ग़ैर दिल की अगर तर्जुमाँ न हो
दिल को हलाक-ए-जल्वा-ए-जानाँ बनाइए
किस से आज़ुर्दा मिरे क़ातिल का ख़ंजर हो गया
तुझ से क्या सुब्ह तलक साथ निभेगा ऐ उम्र
तौहीद तो ये है कि ख़ुदा हश्र में कह दे
हम मआनी-ए-हवस नहीं ऐ दिल हवा-ए-दोस्त