बदन पे कोई ज़रा है न हाथ में तलवार
और अश्क-ज़ार में सदियों के उंदुलुस का सफ़र
इस आसमान के नीचे कहीं पड़ाव न था
अजब तिलिस्म था वो आठ सौ बरस का सफ़र
अजब नहीं जो किसी सुब्ह फूल-बन के खिलूँ
मिरा सफ़र है अँधेरे में ख़ार-ओ-ख़स का सफ़र
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किसी तारीक गोशे में बसर होगी हमारी
घिरा हुआ हूँ जनम-दिन से इस तआक़ुब में
लहू में क्या बताएँ रौशनी कैसी मिली थी
पड़े हुए हैं मिरे जिस्म ओ जाँ मिरे पीछे
इक खुला मैदाँ तमाशा-गाह के उस पार है
हमारे सर पे कोई हाथ था न साया था
शब-ए-हिज्राँ
वजूद पर इंहिसार मैं ने नहीं किया था
नमक इन आँसुओं में कम न था पर नम बहुत अच्छा
बरून-ए-दर निकलते ही बहुत घबरा गया हूँ
रब नवाज़ माइल