न कोई आह न कोई ख़लिश न दर्द न ग़म
न कोई आह न कोई ख़लिश न दर्द न ग़म
वो याद आए तो पहरों सुकूत का आलम
दिखा गई मुझे नैरंगियाँ ज़माने की
वो इक निगाह कभी मुल्तफ़ित कभी बरहम
हलावातों में वो डूबी सी इक करम की निगाह
लताफ़तों में वो लिपटे हुए हज़ार सितम
वो एक शम् कि ख़ुद जल उठे हैं घर के चराग़
वो एक सुब्ह कि ख़ुद जिस पे रो पड़ी शबनम
मोहब्बतों में ये ईमाँ ये चश्म-ए-नम ये तड़प
बुतों से हम को बहुत कुछ मिला ख़ुदा की क़सम
अजीब धुन थी कि ठहरे कहीं न दीवाने
वो राहतों का चमन हो कि ख़ार-ज़ार-ए-अलम
न पूछ क्यूँ मुझे आते हैं याद ऐ 'जज़्बी'
जहान-ए-दर्द में दर्द-ए-जहाँ के वो महरम
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