Ghazals of Munawwar Rana
नाम | मुनव्वर राना |
---|---|
अंग्रेज़ी नाम | Munawwar Rana |
जन्म की तारीख | 1952 |
जन्म स्थान | Lucknow |
ये सर-बुलंद होते ही शाने से कट गया
ये हिज्र का रस्ता है ढलानें नहीं होतीं
ये दरवेशों की बस्ती है यहाँ ऐसा नहीं होगा
ये बुत जो हम ने दोबारा बना के रक्खा है
वो बिछड़ कर भी कहाँ मुझ से जुदा होता है
थकन को ओढ़ के बिस्तर में जा के लेट गए
सारी दौलत तिरे क़दमों में पड़ी लगती है
सहरा-पसंद हो के सिमटने लगा हूँ मैं
सहरा पे बुरा वक़्त मिरे यार पड़ा है
फिर से बदल के मिट्टी की सूरत करो मुझे
पैरों को मिरे दीदा-ए-तर बाँधे हुए है
मुख़्तसर होते हुए भी ज़िंदगी बढ़ जाएगी
मुझ को गहराई में मिट्टी की उतर जाना है
मिट्टी में मिला दे कि जुदा हो नहीं सकता
मसर्रतों के ख़ज़ाने ही कम निकलते हैं
मैं इस से पहले कि बिखरूँ इधर उधर हो जाऊँ
महफ़िल में आज मर्सिया-ख़्वानी ही क्यूँ न हो
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई
किसी ग़रीब की बरसों की आरज़ू हो जाऊँ
ख़ुद अपने ही हाथों का लिखा काट रहा हूँ
ख़फ़ा होना ज़रा सी बात पर तलवार हो जाना
काले कपड़े नहीं पहने हैं तो इतना कर ले
जुदा रहता हूँ मैं तुझ से तो दिल बे-ताब रहता है
हम कुछ ऐसे तिरे दीदार में खो जाते हैं
हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है
घर में रहते हुए ग़ैरों की तरह होती हैं
दुनिया तिरी रौनक़ से मैं अब ऊब रहा हूँ
दोहरा रहा हूँ बात पुरानी कही हुई
दरिया-दिली से अब्र-ए-करम भी नहीं मिला
छाँव मिल जाए तो कम दाम में बिक जाती है