दिल एक और हज़ार आज़माइशें ग़म की
दिया जला तो था लेकिन हवा की ज़द पर था
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हम पे तन्हाई में कुछ ऐसे भी लम्हे आए
ये लम्हा लम्हा ज़िंदा रहने की ख़्वाहिश का हासिल है
मिसाल-ए-अक्स कुंज-ए-ज़ात से बाहर रहा हूँ मैं
ये हाल है मिरे दीवार-ओ-दर की वहशत का
क़दम उठे तो अजब दिल-गुदाज़ मंज़र था
क्यूँ ख़ल्वत-ए-ग़म में रहते हो क्यूँ गोशा-नशीं बेकार हुए
चेहरा तो चमक दमक रहा है
मिरी नज़र में गए मौसमों के रंग भी हैं
जाने वाला जो कभी लौट के आया होगा
दहर को लम्हा-ए-मौजूद से हट कर देखें
यही नहीं कि वो बे-ताब-ओ-बे-क़रार गया