ये हाल है मिरे दीवार-ओ-दर की वहशत का
कि मेरे होते हुए भी मकान ख़ाली है
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मिसाल-ए-अक्स कुंज-ए-ज़ात से बाहर रहा हूँ मैं
नक़्श गुज़रे हुए लम्हों के हैं दिल पर क्या क्या
क्यूँ ख़ल्वत-ए-ग़म में रहते हो क्यूँ गोशा-नशीं बेकार हुए
न अब वो ख़ुश-नज़री है न ख़ुश-ख़िसाली है
ग़म ही ले दे के मिरी दौलत-ए-बेदार नहीं
बुझे हुए दर-ओ-दीवार देखने वालो
ये क्या ज़रूर हमीं को वो आज़माएगा
ऐ मुश्फ़िक़-ए-मन इस हाल में तुम किस तरह बसर फ़रमाओगे
ये कोई दिल तो नहीं है कि ठहर जाएगा
चेहरा तो चमक दमक रहा है
हम पे तन्हाई में कुछ ऐसे भी लम्हे आए
सितम भी करता है उस का सिला भी देता है