नज़र चुरा के वो गुज़रा क़रीब से लेकिन
नज़र बचा के मुझे देखता भी जाता था
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क्यूँ ख़ल्वत-ए-ग़म में रहते हो क्यूँ गोशा-नशीं बेकार हुए
कोई दिल तो नहीं है कि ठहर जाएगा
ऐ मुश्फ़िक़-ए-मन इस हाल में तुम किस तरह बसर फ़रमाओगे
दिल एक और हज़ार आज़माइशें ग़म की
जाने वाला जो कभी लौट के आया होगा
काम कुछ आ न सकी रस्म-ए-शनासाई भी
यही नहीं कि वो बे-ताब-ओ-बे-क़रार गया
मिसाल-ए-अक्स कुंज-ए-ज़ात से बाहर रहा हूँ मैं
गुज़र गए हैं जो दिन उन को याद करना क्या
मिरी नज़र में गए मौसमों के रंग भी हैं
ये क्या ज़रूर हमीं को वो आज़माएगा