हज़ार बार ख़ुद अपने मकाँ पे दस्तक दी
इक एहतिमाल में जैसे कि मैं ही अंदर था
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चेहरा तो चमक दमक रहा है
ये हाल है मिरे दीवार-ओ-दर की वहशत का
कभी पैग़ाम-ए-सुकूँ तेरी नज़र ने न दिया
दिल एक और हज़ार आज़माइशें ग़म की
ये कोई दिल तो नहीं है कि ठहर जाएगा
हुजूम-ए-हम-नफसाँ चारा-ए-अलम न हुआ
मिसाल-ए-अक्स कुंज-ए-ज़ात से बाहर रहा हूँ मैं
नक़्श गुज़रे हुए लम्हों के हैं दिल पर क्या क्या
क़दम उठे तो अजब दिल-गुदाज़ मंज़र था
जाने वाला जो कभी लौट के आया होगा
ये लम्हा लम्हा ज़िंदा रहने की ख़्वाहिश का हासिल है
कोई दिल तो नहीं है कि ठहर जाएगा