बहुत क़रीब है 'मुज़्तर' वो ज़िंदगी का निज़ाम
नज़र न आएगा जब कोई बिस्मिल ओ क़ातिल
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संग-रेज़ो को हक़ारत से न ठुकराइए आप
इक ठेस भी हल्की सी पत्थर से गिराँ-तर है
हर इक सलीब-ओ-दार का नज़्ज़ारा हम हुए
कल रात मिरे दिल ने फिर चुपके से पूछा है
ख़ुलूस हो तो कहीं बंदगी की क़ैद नहीं
महफ़िल में उन की खुल गया दिल का मुआमला
कोई भी शक्ल मुकम्मल किताब बन न सकी
झुकी झुकी जो है कड़वी-कसीली नीम की शाख़
हाए बे-चेहरगी ये इंसाँ की