उस के रुख़्सार देख जीता हूँ
आरज़ी मेरी ज़िंदगानी है
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ज़ुल्फ़ क्यूँ खोलते हो दिन को सनम
मह-रुख़ाँ की जो मेहरबानी है
दिल का खोज न पाया हरगिज़ देखा खोल जो क़ब्रों को
कमर की बात सुनते हैं ये कुछ पाई नहीं जाती
सिवाए गुल के वो शोख़ अँखियाँ किसी तरफ़ को नहीं हैं राग़िब
ज़िक्र हर सुब्ह ओ शाम है तेरा
देखी बहार हम ने कल ज़ोर मय-कदे में
न सैर-ए-बाग़ न मिलना न मीठी बातें हैं
बुलंद आवाज़ से घड़ियाल कहता है कि ऐ ग़ाफ़िल
ऐ सबा कह बहार की बातें
देख मोहन तिरी कमर की तरफ़