आँख में आँसू नहीं शबनम नहीं कुछ ग़म नहीं
आँख में आँसू नहीं शबनम नहीं कुछ ग़म नहीं
ज़ख़्म हैं जिन पर कोई मरहम नहीं कुछ ग़म नहीं
दर्द वो दे कर मुसलसल हालत-ए-दिल पूछते हैं
ये इनायत भी तो उन की कम नहीं कुछ ग़म नहीं
रात का पिछ्ला पहर है और हम ख़ाना-ब-दोश
कोई दर-दीवार का मातम नहीं कुछ ग़म नहीं
हर तरफ़ हैं ख़ून से रंगीन कपड़े और तन
ये हमारे शौक़ का आलम नहीं कुछ ग़म नहीं
सब डरे सहमे हुए से गुम हैं अपने आप में
हर कोई शामिल है इस में हम नहीं कुछ ग़म नहीं
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