तुझ से बिछड़े गाँव छूटा शहर में आ कर बसे
तज दिए सब संगी साथी त्याग डाला देस भी
Faiz Ahmad Faiz
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देना मिरा संदेश सखी फिर
धुन नहीं कोई मुद्दआ' कैसा
सूरज सुर्ख़ दिशा में उतरा
नई-निकोर निराली पर
तुझ से मिली निगाह तो देखा कि दरमियाँ
नैन नचंत हैं देख के तुझ को
दो एक साल ही इक से सराही जाती है
तिरे हाथ पे खेतों की मिट्टी मिरा मोतियों वाला जामा
उम्रों के बुझते मामूरे में
क़ाएम है आबरू तो ग़नीमत यही समझ
बदन सुंदर सजल मुख पर सिंंहापा
बेकल है मुख निगाह में बोसों की प्यास है