अब सफ़र रात में ही करते हैं
अब सफ़र रात में ही करते हैं
लोग अब रौशनी से डरते हैं
रह के इक शहर-ए-बे-चराग़ में हम
रोज़ जीते हैं रोज़ मरते हैं
याद आते हैं सारे पस-ए-मंज़र
नक़्श माज़ी के जब उभरते हैं
ज़िंदगी यूँ बिखर गई जैसे
टूट कर आइने बिखरते हैं
घर की बोसीदगी छुपाने को
रंग दीवार-ओ-दर में भरते हैं
अपने घर के क़रीब से अक्सर
अजनबी बिन के हम गुज़रते हैं
शाम होती है घर चलो 'अहसन'
साए दीवार से उतरते हैं
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