ख़ौफ़-ओ-दहशत से लब नहीं खुलते
वर्ना क़ातिल मिरी निगाह में है
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एहसास-ए-तीरगी था उसे रौशनी के बा'द
जिसे हम ने कभी देखा नहीं है
अब सफ़र रात में ही करते हैं
वो लम्हे भूले नहीं रस्म-ओ-राह के अब तक
जब भी लौटा गाँव के बाज़ार से
उस ने तो छीना था मेरे जिस्म से मेरा लिबास
दौलत शोहरत क़त्ल तबाही क्या क्या हैं पहचान न पूछ
बिखरे हुए ख़्वाबों की वो तस्वीर है शायद
ख़मोश इस लिए हम हैं कि बात घर की है
शब-ए-फ़िराक़ की तन्हाइयों में तेरा ख़याल