शब-ए-फ़िराक़ की तन्हाइयों में तेरा ख़याल
मिरे वजूद से करता रहा जुदा मुझ को
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जिसे हम ने कभी देखा नहीं है
उस ने तो छीना था मेरे जिस्म से मेरा लिबास
दौलत शोहरत क़त्ल तबाही क्या क्या हैं पहचान न पूछ
ख़मोश इस लिए हम हैं कि बात घर की है
एहसास-ए-तीरगी था उसे रौशनी के बा'द
वो लम्हे भूले नहीं रस्म-ओ-राह के अब तक
बिखरे हुए ख़्वाबों की वो तस्वीर है शायद
ख़ौफ़-ओ-दहशत से लब नहीं खुलते
अब सफ़र रात में ही करते हैं
जब भी लौटा गाँव के बाज़ार से