ज़िंदगी से मिले हुए हो तुम
वो भी मुझ से मज़ाक़ करती है
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महव-ए-रक़्स-ए-विसाल था क्या था
आगही
च्यूंटियाँ
गीली हिज्र की क़ब्रें
यूँ तो मोहब्बतों में बड़ी क़ुर्बतें रहीं
किसी को याद करने के नहीं मख़्सूस कुछ लम्हे
कितने आलम गुज़र गए मुझ पर
फूलों की ज़द में आ के कहीं जान से न जाए
गुनाह
सुकूत-ए-शहर-ए-दिल की बेबसी को भी कोई समझे
संग-दिल
गुड़िया