मैं कहलाऊँ
संग-तराश
वो जो ठहरा
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ख़ुद-फ़रेबी रहे तो अच्छा है
गीली हिज्र की क़ब्रें
यौम-ए-मज़दूर
चाँद जैसा इश्क़
वजूद कर्ब से आगे
कितने आलम गुज़र गए मुझ पर
अपनी आँखें नहीं जलाऊंगी
मिरे सीने से लग कर देर तक रोती है तन्हाई
ज़िंदगी से मिले हुए हो तुम
ला-इल्मी
सीने से दिल निकाल के हाथों पे रख दिया
ये मुख़्तसर सी शिकन क्या बताएगी तुम को