एक लम्हा मुहीत-ए-आलम है
दस्तरस में कई ज़माने हैं
सोच का इक घना सा जंगल है
और इस में फ़क़त ख़ज़ाने हैं
इन ख़यालों में क़ैद हूँ कब से
ये रिहाई के कुछ बहाने हैं
Allama Iqbal
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दिल की उदासियों का कोई सबब नहीं है
तुम को खोया था एक लग़्ज़िश में
जब जब तुम को याद करें हम
और फिर मोहब्बत में जी के मर के देखा है
अपनी आँखों को नोच डाला है
अपनी आँखें नहीं जलाऊंगी
मिरे सीने से लग कर देर तक रोती है तन्हाई
फूलों की ज़द में आ के कहीं जान से न जाए
सुकूत-ए-शहर-ए-दिल की बेबसी को भी कोई समझे
ये मुख़्तसर सी शिकन क्या बताएगी तुम को
रिहाई
गीली हिज्र की क़ब्रें