किस से पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ कई बरसों से
हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा
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पिघलता धुआँ
दुआ सलाम में लिपटी ज़रूरतें माँगे
गिरजा में मंदिरों में अज़ानों में बट गया
मुट्ठी भर लोगों के हाथों में लाखों की तक़दीरें हैं
कुछ भी बचा न कहने को हर बात हो गई
नई नई आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है
मन बै-रागी तन अनूरागी क़दम क़दम दुश्वारी है
राक्षस था न ख़ुदा था पहले
आज ज़रा फ़ुर्सत पाई थी आज उसे फिर याद किया
सफ़र को जब भी किसी दास्तान में रखना
बड़े बड़े ग़म खड़े हुए थे रस्ता रोके राहों में
हुए सब के जहाँ में एक जब अपना जहाँ और हम