हक़ बात तो ये है कि उसी बुत के वास्ते
ज़ाहिद कोई हुआ तो कोई बरहमन हुआ
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दिल पे जो गुज़रे है मेरे आह मैं किस से कहूँ
गए हैं जब से वो उठ के याँ से है हाल बाहर मिरा बयाँ से
महफ़िल में आते जाते हैं इंसाँ नए नए
अब किस को याँ बुलाएँ किस की तलब करें हम
इक वो कि रात दिन रहें महफ़िल में उस की हाए
बिगड़ने से तुम्हारे क्या कहूँ मैं क्या बिगड़ता है
तिरे आगे अदू को नामा-बर मारा तो क्या मारा
ज़ाए नहीं होती कभी तदबीर किसी की
छेड़ हर वक़्त की नहीं जाती
ख़ैर यूँही सही तस्कीं हो कहीं थोड़ी सी
अपनी अंदाज़ के कह शेर न कह ये तू 'निज़ाम'