अब किस को याँ बुलाएँ किस की तलब करें हम
आँखों में राह निकली दिल में मक़ाम निकला
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उठता हूँ उस की बज़्म से जब हो के ना-उमीद
तुम हो गए कुछ और न कुछ और हम हुए
छेड़ हर वक़्त की नहीं जाती
ये भी नया सितम है हिना तो लगाएँ ग़ैर
हक़ बात तो ये है कि उसी बुत के वास्ते
किस का है इंतिज़ार कहाँ ध्यान है लगा
बोसा तो उस लब-ए-शीरीं से कहाँ मिलता है
देख अपने क़रार करने को
गए हैं जब से वो उठ के याँ से है हाल बाहर मिरा बयाँ से
अंगड़ाई भी वो लेने न पाए उठा के हाथ
जो जो मज़े किए हैं ज़बाँ से मैं क्या कहूँ
ये हवा सर्द चली और ये बादल आए