बोसा तो उस लब-ए-शीरीं से कहाँ मिलता है
गालियाँ भी मिलीं हम को तो मिलीं थोड़ी सी
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क्यूँ करते हो ए'तिबार मेरा
दरबाँ से आप कहते थे कुछ मेरे बाब में
इक बात लिखी है क्या ही मैं ने
मुझ से क्यूँ कहते हो मज़मूँ ग़ैर की तहरीर का
जो सरगुज़िश्त अपनी हम कहेंगे कोई सुनेगा तो क्या करेंगे
आँखें फूटें जो झपकती भी हों
देख कर ग़ैर को शोख़ी देखो
मज़मून सूझते हैं हज़ारों नए नए
शब तो वो याँ से रूठ के घर जा के सो रहे
अब क्या मिलें किसी से कहाँ जाएँ अब 'निज़ाम'
ख़ुश्बू वो पसीने की तिरी याद न आ जाए
वाँ तो मिलने का इरादा ही नहीं