मज़मून सूझते हैं हज़ारों नए नए
क़ासिद ये ख़त नहीं मिरे ग़म की किताब है
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कहीं उस बज़्म तक रसाई हो
तेरा मिलना तो है मुश्किल मगर इतना तो हुआ
फ़िक्र यही है हर घड़ी ग़म यही सुब्ह ओ शाम है
क्या दुआ रोज़-ए-हश्र की माँगें
इक बात लिखी है क्या ही मैं ने
मैं न कहता था कि बहकाएँगे तुम को दुश्मन
याँ किसे ग़म है जो गिर्या ने असर छोड़ दिया
उस की उल्फ़त में जीते-जी मरना
फ़िराक़ में तो सताती है आरज़ू-ए-विसाल
जो जो मज़े किए हैं ज़बाँ से मैं क्या कहूँ
अंदाज़ अपना देखते हैं आईने में वो
साफ़ बातों में तो कुदूरत है