फ़िराक़ में तो सताती है आरज़ू-ए-विसाल
शब-ए-विसाल में क्यूँ दर्द-ए-दिल दो-चंद हुआ
ख़ुदा ही जाने कि क्या दिल पे चोट लगती है
तुम्हारे पास जो आया वो दर्द-मंद हुआ
न क्यूँकि जान दें इस रश्क से भला अपनी
हमारा आज से जाना वहाँ पे बंद हुआ
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आए भी वो चले भी गए याँ किसे ख़बर
कहिए गर रब्त मुद्दई से है
क्या किसी से किसी का हाल कहें
हिलती है ज़ुल्फ़ जुम्बिश-ए-गर्दन के साथ साथ
कभी मिलते थे वो हम से ज़माना याद आता है
किसी ने पकड़ा दामन और किसी ने आस्तीं पकड़ी
है ख़ुशी इंतिज़ार की हर दम
देख अपने क़रार करने को
मैं न कहता था कि बहकाएँगे तुम को दुश्मन
जब तो मैं हूँ आह में ऐसा असर पैदा करूँ
साफ़ बातों में तो कुदूरत है
हाल-ए-दिल तुम से मिरी जाँ न कहा कौन से दिन