जो जो मज़े किए हैं ज़बाँ से मैं क्या कहूँ
पास अपने आज तक तिरे मुँह का उगाल है
Gulzar
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आँखें फूटें जो झपकती भी हों
नहीं सूझता कोई चारा मुझे
बे-साख़्ता निगाहें जो आपस में मिल गईं
दिल पे जो गुज़रे है मेरे आह मैं किस से कहूँ
इस क़दर आप का इताब रहे
छेड़ हर वक़्त की नहीं जाती
ज़िद है गर है तो हो सभी के साथ
तुम से कुछ कहने को था भूल गया
वो तो यूँही कहता है कि मैं कुछ नहीं कहता
और अब क्या कहें कि क्या हैं हम
छेड़ मंज़ूर है क्या आशिक़-ए-दिल-गीर के साथ
जो कि नादाँ है वो क्या जाने तिरी चाहत की क़द्र