इस क़दर आप का इताब रहे
दिल को मेरे न इज़्तिराब रहे
Wasi Shah
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Gulzar
Anwar Masood
Jaun Eliya
Faiz Ahmad Faiz
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शब तो वो याँ से रूठ के घर जा के सो रहे
देख कर ग़ैर को शोख़ी देखो
हिलती है ज़ुल्फ़ जुम्बिश-ए-गर्दन के साथ साथ
अब क्या मिलें किसी से कहाँ जाएँ अब 'निज़ाम'
किस का है इंतिज़ार कहाँ ध्यान है लगा
अब तो सब का तिरे कूचे ही में मस्कन ठहरा
और अब क्या कहें कि क्या हैं हम
किस क़दर हिज्र में बेहोशी है
तुम से कुछ कहने को था भूल गया
उस से फिर क्या गिला करे कोई
बे-साख़्ता निगाहें जो आपस में मिल गईं
गए हैं जब से वो उठ के याँ से है हाल बाहर मिरा बयाँ से