अब तो सब का तिरे कूचे ही में मस्कन ठहरा
यही आबाद है दुनिया में ज़मीं थोड़ी सी
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छेड़ हर वक़्त की नहीं जाती
वो ऐसे बिगड़े हुए हैं कई महीने से
मिरी साँस अब चारा-गर टूटती है
न बन आया जब उन को कोई जवाब
किस का है इंतिज़ार कहाँ ध्यान है लगा
अंगड़ाई भी वो लेने न पाए उठा के हाथ
ख़ैर यूँही सही तस्कीं हो कहीं थोड़ी सी
बहर-ए-हस्ती से कूच है दरपेश
मज़मून सूझते हैं हज़ारों नए नए
जो चुप रहूँ तो बताएँ वो घुँगनियाँ मुँह में
तिरे आगे अदू को नामा-बर मारा तो क्या मारा
अब तुम से क्या किसी से शिकायत नहीं मुझे