अब क्या मिलें किसी से कहाँ जाएँ हम 'निज़ाम'
हम वो नहीं रहे वो मोहब्बत नहीं रही
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बे-साख़्ता निगाहें जो आपस में मिल गईं
तुम से कुछ कहने को था भूल गया
हिलती है ज़ुल्फ़ जुम्बिश-ए-गर्दन के साथ साथ
अभी तो कहा ही नहीं मैं ने कुछ
आदत से उन की दिल को ख़ुशी भी है ग़म भी है
मुंतज़िर हूँ किसी के आने का
गर कहूँ मतलब तुम्हारा खुल गया
फ़िक्र यही है हर घड़ी ग़म यही सुब्ह ओ शाम है
किसी ने पकड़ा दामन और किसी ने आस्तीं पकड़ी
जो जो मज़े किए हैं ज़बाँ से मैं क्या कहूँ
देना वो उस का साग़र-ए-मय याद है 'निज़ाम'
राह निकलेगी न कब तक कोई