राह निकलेगी न कब तक कोई
तिरी दीवार है और सर मेरा
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सदमे यूँ ग़ैर पर नहीं आते
वाँ तो मिलने का इरादा ही नहीं
तेरे ही ग़म में मर गए सद-शुक्र
इक वो कि रात दिन रहें महफ़िल में उस की हाए
छेड़ मंज़ूर है क्या आशिक़-ए-दिल-गीर के साथ
मिरी साँस अब चारा-गर टूटती है
अंदाज़ अपना देखते हैं आईने में वो
छेड़ हर वक़्त की नहीं जाती
क्यूँ नासेहा उधर को न मुँह कर के सोइए
अब क्या मिलें किसी से कहाँ जाएँ अब 'निज़ाम'
और अब क्या कहें कि क्या हैं हम
आँखें फूटें जो झपकती भी हों