मिरी साँस अब चारा-गर टूटती है
मिरी साँस अब चारा-गर टूटती है
कहीं जुड़ती है फिर कहीं टूटती है
ये ख़ू है तुम्हारी तो क्यूँ-कर बनेगी
उधर बनती है तो इधर टूटती है
न हम पर हँसो हाल होता है ये ही
मुसीबत जो इंसान पर टूटती है
समझता हूँ कुछ मैं भी बातें तुम्हारी
ये हर तअन क्या ग़ैर पर टूटती है
ख़ुदा के लिए फिर तो ऐसा न कहना
मिरी आस ऐ नामा-बर टूटती है
यहाँ जिस के बे-देखे जी टूटता है
वहाँ उस की हर-दम नज़र टूटती है
ग़ज़ब हाथा-पाई का है लुत्फ़ होता
कोई उन की चूड़ी अगर टूटती है
अदू का भी तो घर है ऐ चर्ख़ ज़ालिम
जो आफ़त है मेरे ही घर टूटती है
तिरी बात का क्या है उनवान क़ासिद
तवक़्क़ो हमारी मगर टूटती है
ये ग़म है तो रोना भी अपना यही है
ये रोना है तो चश्म-ए-तर टूटती है
ये कहना 'निज़ाम' अब तो सोने दे मुझ को
कोई बैठे कब तक कमर टूटती है
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