उस की उल्फ़त में जीते-जी मरना
फ़ाएदा ये भी ज़िंदगी से है
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जो चुप रहूँ तो बताएँ वो घुँगनियाँ मुँह में
छेड़ हर वक़्त की नहीं जाती
यूँ तो रूठे हैं मगर लोगों से
नहीं सूझता कोई चारा मुझे
बहर-ए-हस्ती से कूच है दरपेश
दिल में क्या उस को मिला जान से हम देखते हैं
अब तो सब का तिरे कूचे ही में मस्कन ठहरा
लिपटा के शब-ए-वस्ल वो उस शोख़ का कहना
महफ़िल में आते जाते हैं इंसाँ नए नए
किस का है इंतिज़ार कहाँ ध्यान है लगा
दरबाँ से आप कहते थे कुछ मेरे बाब में
रात था वस्ल आज हिज्र का दिन