उठता हूँ उस की बज़्म से जब हो के ना-उमीद
फिर फिर के देखता हूँ कोई अब पुकार ले
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मुझ से क्यूँ कहते हो मज़मूँ ग़ैर की तहरीर का
सच है 'निज़ाम' याद भी उस को न होंगे हम
तेरे ही ग़म में मर गए सद-शुक्र
उस से फिर क्या गिला करे कोई
वो इशारों में उस का कहना हाए
बे-साख़्ता निगाहें जो आपस में मिल गईं
फ़िराक़ में तो सताती है आरज़ू-ए-विसाल
अब किस को याँ बुलाएँ किस की तलब करें हम
तुम हो गए कुछ और न कुछ और हम हुए
देख अपने क़रार करने को
क्या किसी से किसी का हाल कहें
याँ किसे ग़म है जो गिर्या ने असर छोड़ दिया