वो इशारों में उस का कहना हाए
देखो अपने पराए बैठे हैं
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छेड़ हर वक़्त की नहीं जाती
मिरी साँस अब चारा-गर टूटती है
आदत से उन की दिल को ख़ुशी भी है ग़म भी है
मुझ से क्यूँ कहते हो मज़मूँ ग़ैर की तहरीर का
गए हैं जब से वो उठ के याँ से है हाल बाहर मिरा बयाँ से
इक बात लिखी है क्या ही मैं ने
वो बिगड़े हैं रुके बैठे हैं झुँजलाते हैं लड़ते हैं
वाँ तो मिलने का इरादा ही नहीं
अपनी अंदाज़ के कह शेर न कह ये तू 'निज़ाम'
है ख़ुशी इंतिज़ार की हर दम
बोसा तो उस लब-ए-शीरीं से कहाँ मिलता है