मुझ से क्यूँ कहते हो मज़मूँ ग़ैर की तहरीर का

मुझ से क्यूँ कहते हो मज़मूँ ग़ैर की तहरीर का

जानता हूँ मुद्दआ मैं आप की तक़रीर का

साथ गर सोने न दोगे तुम को भी नींद आ चुकी

मैं तो आदी हो गया हूँ नाला-ए-शब-गीर का

अपने मतलब की समझ कर हो गए थे हम तो ख़ुश

क्यूँ मुकरते हो यही मतलब है उस तक़रीर का

अहद किस का, आप जो कहते उसे सच जानता

क्या करूँ क़ाइल हूँ मैं तो ग़ैर की तदबीर का

कुछ असर उन पर हुआ तो क्या ही देते हैं फ़रेब

कहते हैं क़ाइल नहीं मैं आह-ए-बे-तासीर का

ये तो फ़रमाओ कि क्या उस को करूँगा मैं मुआफ़

मेरे आगे ज़िक्र क्यूँ है ग़ैर की तक़्सीर का

एक दिन सुन कर चले आए थे वो बे-साख़्ता

आसमाँ पर है दिमाग़ अब आह-ए-बे-तासीर का

पंजा-ए-उल्फ़त से पकड़ा है उसे दिल ने मिरे

सहल है क़ातिल कोई पहलू से खिंचना तीर का

कोशिश-ए-बेजा थी ये कुछ ए'तिमाद-ए-अक़्ल पर

अब ये दर्जा है कि क़ाइल ही नहीं तदबीर का

जितने सर हैं उतने सौदे क्या ख़ता नासेह मिरी

मैं ही इक क़ैदी नहीं उस ज़ुल्फ़-ए-आलम-गीर का

क्या कहा था मैं ने तुम क्या समझे इस का क्या इलाज

तुम ही मुंसिफ़ हो ये मतलब था मिरी तक़रीर का

ये मिरा लिक्खा कि जो तदबीर की उल्टी पड़ी

और इस पर भी मुझे शिकवा नहीं तक़दीर का

जज़्ब-ए-उल्फ़त इस को कहते हैं कहीं पड़ जाए हाथ

ज़ख़्म दिल पर ही पहुँचता है तिरी शमशीर का

मुझ को उस के पास जाना उस में जो कुछ हो 'निज़ाम'

एक मतलब जानता हूँ ज़िल्लत ओ तौक़ीर का

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In Hindi By Famous Poet Nizam Rampuri. is written by Nizam Rampuri. Complete Poem in Hindi by Nizam Rampuri. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.