इक बात लिखी है क्या ही मैं ने
तुझ से तो न नामा-बर कहूँगा
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अब क्या मिलें किसी से कहाँ जाएँ अब 'निज़ाम'
आँखें फूटें जो झपकती भी हों
वो तो यूँही कहता है कि मैं कुछ नहीं कहता
किसी ने पकड़ा दामन और किसी ने आस्तीं पकड़ी
इक वो कि रात दिन रहें महफ़िल में उस की हाए
अंगड़ाई भी वो लेने न पाए उठा के हाथ
यूँ तो रूठे हैं मगर लोगों से
आए भी वो चले भी गए याँ किसे ख़बर
दुश्मन से और होतीं बहुत बातें प्यार की
लिपटा के शब-ए-वस्ल वो उस शोख़ का कहना
ख़ैर यूँही सही तस्कीं हो कहीं थोड़ी सी
वो बिगड़े हैं रुके बैठे हैं झुँजलाते हैं लड़ते हैं