यूँ तो रूठे हैं मगर लोगों से
पूछते हाल हैं अक्सर मेरा
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वाँ तो मिलने का इरादा ही नहीं
वही लोग फिर आने जाने लगे
ख़ैर यूँही सही तस्कीं हो कहीं थोड़ी सी
उस से फिर क्या गिला करे कोई
जो कि नादाँ है वो क्या जाने तिरी चाहत की क़द्र
गर दोस्तो तुम ने उसे देखा नहीं होता
कहने से न मनअ' कर कहूँगा
महफ़िल में आते जाते हैं इंसाँ नए नए
उस की उल्फ़त में जीते-जी मरना
अब तो सब का तिरे कूचे ही में मस्कन ठहरा
जो चुप रहूँ तो बताएँ वो घुँगनियाँ मुँह में
जो कुछ इशारे होते हैं सब देखता हूँ मैं