जो कुछ इशारे होते हैं सब देखता हूँ मैं
सारी शरारत आप की मेरी नज़र में है
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तुम हो गए कुछ और न कुछ और हम हुए
नहीं सूझता कोई चारा मुझे
दिल में क्या उस को मिला जान से हम देखते हैं
राह निकलेगी न कब तक कोई
मेरे मिलने से जो यूँ हाथ उठा-बैठा तू
फ़िक्र यही है हर घड़ी ग़म यही सुब्ह ओ शाम है
उस की उल्फ़त में जीते-जी मरना
छेड़ मंज़ूर है क्या आशिक़-ए-दिल-गीर के साथ
और अब क्या कहें कि क्या हैं हम
उस से फिर क्या गिला करे कोई
आँखें फूटें जो झपकती भी हों