मेरे मिलने से जो यूँ हाथ उठा-बैठा तू
नहीं मालूम कि दिल में तिरे क्या बैठ गया
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मुंतज़िर हूँ किसी के आने का
मज़ा क्या जो यूँही सहर हो गई
दरबाँ से आप कहते थे कुछ मेरे बाब में
अपनी अंदाज़ के कह शेर न कह ये तू 'निज़ाम'
उस की उल्फ़त में जीते-जी मरना
इक बात लिखी है क्या ही मैं ने
किस का है इंतिज़ार कहाँ ध्यान है लगा
हक़ बात तो ये है कि उसी बुत के वास्ते
देना वो उस का साग़र-ए-मय याद है 'निज़ाम'
सदमे यूँ ग़ैर पर नहीं आते
देखिए तो ख़याल-ए-ख़ाम मिरा
वाँ तो मिलने का इरादा ही नहीं