देना वो उस का साग़र-ए-मय याद है 'निज़ाम'
मुँह फेर कर इधर को उधर को बढ़ा के हाथ
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अभी तो कहा ही नहीं मैं ने कुछ
अंदाज़ अपना देखते हैं आईने में वो
इस क़दर आप का इताब रहे
किसी ने पकड़ा दामन और किसी ने आस्तीं पकड़ी
गर कोई पूछे मुझे आप इसे जानते हैं
गए हैं जब से वो उठ के याँ से है हाल बाहर मिरा बयाँ से
बे-साख़्ता निगाहें जो आपस में मिल गईं
यूँ तो रूठे हैं मगर लोगों से
रात था वस्ल आज हिज्र का दिन
जो चुप रहूँ तो बताएँ वो घुँगनियाँ मुँह में
आदत से उन की दिल को ख़ुशी भी है ग़म भी है
और अब क्या कहें कि क्या हैं हम