रात था वस्ल आज हिज्र का दिन
कुछ ज़माने का ए'तिबार नहीं
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याँ किसे ग़म है जो गिर्या ने असर छोड़ दिया
हम को शब-ए-विसाल भी रंज-ओ-मेहन हुआ
दिल पे जो गुज़रे है मेरे आह मैं किस से कहूँ
अंगड़ाई भी वो लेने न पाए उठा के हाथ
लिपटा के शब-ए-वस्ल वो उस शोख़ का कहना
देख अपने क़रार करने को
मज़ा क्या जो यूँही सहर हो गई
उठता हूँ उस की बज़्म से जब हो के ना-उमीद
मिरी साँस अब चारा-गर टूटती है
न बन आया जब उन को कोई जवाब
इक बात लिखी है क्या ही मैं ने
तेरे ही ग़म में मर गए सद-शुक्र