तेरे ही ग़म में मर गए सद-शुक्र
आख़िर इक दिन तो हम को मरना था
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दिल पे जो गुज़रे है मेरे आह मैं किस से कहूँ
इक बात लिखी है क्या ही मैं ने
अब तुम से क्या किसी से शिकायत नहीं मुझे
जो सरगुज़िश्त अपनी हम कहेंगे कोई सुनेगा तो क्या करेंगे
छेड़ मंज़ूर है क्या आशिक़-ए-दिल-गीर के साथ
और अब क्या कहें कि क्या हैं हम
दुश्मन से और होतीं बहुत बातें प्यार की
इस क़दर आप का इताब रहे
मिरी साँस अब चारा-गर टूटती है
हम को शब-ए-विसाल भी रंज-ओ-मेहन हुआ
मेरे मिलने से जो यूँ हाथ उठा-बैठा तू
कहीं उस बज़्म तक रसाई हो