तुझ से ही छुपाऊँगा ग़म अपना
तुझ से ही कहूँगा गर कहूँगा
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अंगड़ाई भी वो लेने न पाए उठा के हाथ
बहर-ए-हस्ती से कूच है दरपेश
अभी तो कहा ही नहीं मैं ने कुछ
ज़ाए नहीं होती कभी तदबीर किसी की
जो चुप रहूँ तो बताएँ वो घुँगनियाँ मुँह में
बोसा तो उस लब-ए-शीरीं से कहाँ मिलता है
ख़बर नहीं कई दिन से वो दिक़ है या ख़ुश है
अब तुम से क्या किसी से शिकायत नहीं मुझे
अब तो सब का तिरे कूचे ही में मस्कन ठहरा
क्यूँ नासेहा उधर को न मुँह कर के सोइए
आदत से उन की दिल को ख़ुशी भी है ग़म भी है
तसव्वुर आप का है और मैं हूँ