कहीं उस बज़्म तक रसाई हो
फिर कोई देखे एहतिमाम मिरा
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अंगड़ाई भी वो लेने न पाए उठा के हाथ
शब तो वो याँ से रूठ के घर जा के सो रहे
है ख़ुशी इंतिज़ार की हर दम
ये दिन तो सर्फ़ आप के वादों में हो गए
अब तो सब का तिरे कूचे ही में मस्कन ठहरा
गर कहूँ मतलब तुम्हारा खुल गया
मुझ से क्यूँ कहते हो मज़मूँ ग़ैर की तहरीर का
हम को शब-ए-विसाल भी रंज-ओ-मेहन हुआ
किस का है इंतिज़ार कहाँ ध्यान है लगा
गर कोई पूछे मुझे आप इसे जानते हैं
अभी तो कहा ही नहीं मैं ने कुछ
बहर-ए-हस्ती से कूच है दरपेश