लिपटा के शब-ए-वस्ल वो उस शोख़ का कहना
कुछ और हवस इस से ज़ियादा तो नहीं है
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हो के बस इंसान हैराँ सर पकड़ कर बैठ जाए
शब तो वो याँ से रूठ के घर जा के सो रहे
अब तो सब का तिरे कूचे ही में मस्कन ठहरा
तिरे आगे अदू को नामा-बर मारा तो क्या मारा
हुए नुमूद जो पिस्ताँ तो शर्म खा के कहा
सच है 'निज़ाम' याद भी उस को न होंगे हम
फ़िराक़ में तो सताती है आरज़ू-ए-विसाल
मज़ा क्या जो यूँही सहर हो गई
किस का है इंतिज़ार कहाँ ध्यान है लगा
मिरी साँस अब चारा-गर टूटती है
वो इशारों में उस का कहना हाए
अब किस को याँ बुलाएँ किस की तलब करें हम