अपनी अंदाज़ के कह शेर न कह ये तू 'निज़ाम'
कि चुनाँ बैठ गया और चुनीं बैठ गई
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Faiz Ahmad Faiz
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बहर-ए-हस्ती से कूच है दरपेश
जो कुछ इशारे होते हैं सब देखता हूँ मैं
कभी मिलते थे वो हम से ज़माना याद आता है
मैं न कहता था कि बहकाएँगे तुम को दुश्मन
महफ़िल में आते जाते हैं इंसाँ नए नए
अंगड़ाई भी वो लेने न पाए उठा के हाथ
ख़ुश्बू वो पसीने की तिरी याद न आ जाए
अब किस को याँ बुलाएँ किस की तलब करें हम
ख़बर नहीं कई दिन से वो दिक़ है या ख़ुश है
देखिए तो ख़याल-ए-ख़ाम मिरा
क्यूँ करते हो ए'तिबार मेरा
यूँ तो रूठे हैं मगर लोगों से